Saturday, January 14, 2017

मृच्छकटिकं की न्यायव्यवस्था

मृच्छकटिकम्”  की न्याय-व्यवस्था

·      वृषभ प्रसाद जैन

निउपसर्ग-पूर्वक इण्गतौ धातु से घञ्प्रत्यय लगने पर न्याय शब्द बनता है। न्याय शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है कि जिसके द्वारा निश्चित और निर्बाध वस्तु तत्त्व का ज्ञान होता है, उसे न्याय कहते हैं। यथा-
निश्चितं च निर्बाधं च वस्तुतत्त्वमीयतेऽनेनेति न्यायः।
न्यायकुसुमांजलि में भी न्याय शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा गया कि जिससे विवक्षित अर्थ का, सत्य का, ज्ञान होता है, उसे न्याय कहते हैं- नीयते ज्ञायते विवक्षितार्थोऽनेनेति न्यायः। ....परंतु ‘‘न्याय पारिभाषिक की परिभाषा देते हुए न्यायभाष्य कहता है-
प्रमाणैरर्थ-परीक्षणं न्यायः।
अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा अर्थ का, सत्य का, तत्त्व का, तथ्य का परीक्षण करना न्याय है, जिसका अभिप्राय है कि न्याय की प्रक्रिया प्रमाणों के बिना नहीं चलती, चाहे वह शास्त्र-सम्बंधी न्याय हो या लौकिक जीवन सम्बंधी या-फिर न्यायालय सम्बंधी। कुल मिलाकर वैदिक परंपरा सहित सम्पूर्ण भारतीय चिंतन में प्रमाण ही न्याय-व्यवस्था के आधार हैं।
मृच्छकटिकम् को चाहे शूद्रक की रचना मानें या-फिर महाकवि दण्डी की। मृच्छकटिकम् को ध्यान से या ऐसे ही बस आप पढ़ें, तो लगेगा कि यह ऐसी रचना है, जो केवल उस काल के समाज का ही नहीं, आज के समाज का भी सीधे और साफ प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती है, जबकि इसकी रचना लगभग 1800 वर्ष पूर्व हुई। इसमें वास्तविक समाज के लिए आवश्यक किसी भी पक्ष को नाटककार ने रूपायित करने से नहीं छोड़ा है, कुल मिलाकर बात यह है कि इसमें नाटककार ने समाज का वास्तविक चित्र उकेरा है विभिन्न पात्रों और उनकी उक्तियों एवं संभाषणों, दृश्यों, अंकों आदि की प्रस्तुति के द्वारा। मृच्छकटिकम् में नाटककार ने कालिदास और भास आदि की तरह किसी आदर्श परिकल्पित रूप को नाट्यरूप देने की बजाय समाज में पल रहे यथार्थ एवं वास्तविक वस्तु को चित्रित करने को बेहतर समझा तथा उसे उसी रूप में चित्रित किया, रूपायित किया, इसीलिए यह नाटक रचना-काल के लगभग 2 हजार वर्ष बाद भी ऐसे समाज को सामने रखता है कि जिसमें लगता है कि हम आज भी जी रहे हैं।
अपराधी को दण्ड देने के लिए न्यायालय की व्यवस्था हेतु मृच्छकटिकम् में न्यायालय शब्द के लिए ‘‘अधिकरण मण्डप, न्यायाधीश के लिए ‘‘अधिकरणिक”, पेशकार के लिए ‘‘कायस्थ, आबाज़ लगाने वाले के लिए ‘‘शोधनकआदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। मृच्छकटिकम् अंक 3, मृच्छकटिकम् अंक 4, मृच्छकटिकम् अंक 6, मृच्छकटिकम् अंक 8 और मृच्छकटिकम् अंक 9 में न्यायप्रक्रिया से जुड़े प्रसंग देखने को हमें मिलते हैं।

मृच्छकटिकम् के आठवें अंक में शकार के द्वारा भिक्षु को पीटने तथा वसन्तसेना की हत्या करने तथा चारुदत्त पर वसन्तसेना की हत्या का आरोप लगने से ऐसा लगता है कि मृच्छकटिकम् के काल में भी मारपीट, हत्या, आदि अपराध होते थे, जुआ राज्य के द्वारा स्वीकृत था, अतः उसे अपराध की श्रेणी में नहीं गिना जाता था, पर जुए में वेईमानी करने वालों तथा भागने वालों के विरुद्ध न्यायालय में दावा किया जा सकता था, हत्या व हत्या के आरोप जैसे अपराध होते थे, जिसके लिए मृत्युदण्ड ही दण्ड था।

मृच्छकटिकम् में चित्रित न्याय-व्यवस्था भी लगभग कुछ ऐसी ही है। इस न्याय-व्यवस्था को इस प्रकरण में सर्वप्रथम प्रस्तुत करने वाले विदूषक की निम्न उक्ति देखिए, जो राजसत्ता के प्रधान राजा के शाले के संदर्भ से विदूषक के मुख से कहलायी गयी उक्ति है। नाटक की नायिका वसंतसेना, जो गणिका-पुत्री है, नाटक के नायक चारुदत्त से प्रेम करती है, पर राजा का शाला शकार, जो इस नाटक का प्रतिनायक है, उसे अपनी भोग की वस्तु बनाना चाहता है, वह उस शकार के हाथ आती नहीं, बल्कि वह उससे घृणा करती है, तो राजा का शाला शकार विदूषक के माध्यम से चारुदत्त के पास यह संदेश भिजवाता है। संदेश है-
विदूषकः ता ज इमम हत्थे सअं ज्जेव पट्टाविअ एणं समप्पेसि, तदो अधिअलणे ववहालं विणा लहुं णिज्जादमाणाह तव मए अणुवद्धा पीदी हुविस्सदि। अण्णधा, आमलणन्तिके वेले हुविस्सदि।
(तद् यदि मम हस्ते स्वयमेव प्रस्थाप्येनां समर्पयसि, ततोऽअधिकरणे व्यवहारं बिना लघु निर्यातयतस्तव मयानुबद्धा प्रीतिर्भविष्यति। अन्यथा आमरणान्तं वैरं भविष्यति।)
अर्थात्- यदि तुमने अपनी इच्छा से उसे मेरे हाथों में सौंप दिया, तो सबसे पहले न्यायालय के अभियोग से मुक्त हो जाओगे, फिर मेरे साथ तुम्हारी मैत्री चिर-स्थायिनी बन जाएगी। नहीं तो, फिर आजीवन शत्रुता बनी रहेगी। उक्त घटना यह साफ कहती है कि न्यायालय खिलौना है सत्ताधारियों के लिए, वे जिसे चाहें, उसे मुक्त करा दें, जिसे चाहें, उसे इसकी प्रक्रिया में फँसवा दें।

          .....और आगे चलते हैं मृच्छकटिकम् नाटक की घटनाओं के साथ-
(1)राजा पालक के राज्य में विप्लव, वसन्तसेना के गले का घोंटा जाना, वसन्तसेना की हत्या के आरोप में चारुदत्त को फँसाया जाना, अदालत में उनके विरुद्ध फैसला आना और अन्त में उनकी प्राण रक्षा, शूद्रक के ये सारे प्रसंग वर्तमान परिवेश के साम्य को दिखाते हुए-से आज के परिदृश्य की व्यवस्थित व्याख्या जैसी करते प्रतीत होते हैं।
2) आभूषणों की पोटली वसन्तसेना चारुदत्त के पास छोड़ जाती है, चारुदत्त उसे देता है विदूषक को, विदूषक उसे देता है चोर को, चोर उसे देता है मदनिका को और मदनिका से पोटली फिर पहुँच जाती है वसन्तसेना के पास। कितना आकर्षक है यह वृत्त, बिल्कुल भर्तृहरि के नीतिशतक के प्रथम पद जैसा। विवाहिता के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री के साथ अनुबद्ध या अनुरक्त रहना तत्कालीन समाज में प्रचलित प्रवृत्ति है।
3) राजा के शाले शकार को इस बात का बड़ा गौरव है कि उसकी बहन राजा की रखैल है, और वह चाहे तो अपनी माँ, बहन को कहकर न्यायाधीश को भी पदच्युत करवा सकता है।
उक्त बिंदु सं. 3 की घटना यह साफ कहती है कि न्यायालय ही नहीं न्यायाधीश भी खिलौने हैं सत्ताधारियों के लिए, वे सत्ताधारी जब जिस न्यायाधीश को चाहें, उसे पदच्युत करा दें।
4) अन्त में चिढ़कर अवसर हाथ आते ही राजा का शाला शकार वसन्तसेना की हत्या कर देता है एवं हत्या का दोष निरीह चारुदत्त के माथे मढ़कर और प्रपंच कर उसे न्यायप्रक्रिया के माध्यम से अपराधी घोषित करा लेने और अन्ततः राजा से प्राणदण्ड दिलवाने में सफलता प्राप्त कर लेता है।
5) राजा का शाला शकार समझता है कि वसन्तसेना की हत्या हो गई और वह उसे उद्यान में मृत मानकर चला आता है, पर वास्तव में मृत-जैसी अवस्था में मूर्च्छित हो जाती है, एक भिक्षु उसे उद्यान में निर्जीव-सा देखता है और वह किसी तरह उसे बचा लेता है, पर जब चारुदत्त को समाज के सम्मुख मृत्यु-दण्ड दिया जा रहा है, उसे धस्थल पर ले जाया जा चुका है, शूली पर चढ़ाये जाने के पूर्व लगाया जाने वाला रक्त चंदन लगाया जा चुका है, तभी वसन्तसेना को लेकर पहुँच जाता है और उसके प्राण बच जाते हैं और जब जनता के सामने यह तथ्य उद्घाटित होता है कि उस हत्या के प्रयत्न करने के लिए जिम्मेदार तो राजा का शाला शकार है, तब राजा और उसका शाला शकार दोनों धिक्कारे जाते हैं जनता के द्वारा और इस प्रकार न्यायाधिकरण के द्वारा घोषित न्याय भी बोना साबित होता है।
6) ये सारी घटनाएँ इस बात की सूचना देती हैं कि न्याय-व्यवस्था से बड़ी समाज की स्वीकृति है, व्यक्ति के स्वयं के कृत्य हैं और व्यक्ति यदि सन्मार्ग पर खड़ा है, तो यह जरूर है कि उसे संघर्ष करना पड़ता है, पर अन्ततः उसकी विजय होती है।
7) नाटक के मध्य में किसी सिद्धपुरुष की इस घोषणा से कि अहीर पु़त्र वीरक राजा होगाप्रभावित होता है और सचेत होकर राजा पालक उसे मड़ई से पकड़कर कठोर कारावास में बिना किसी अपराध के ही अपनी सत्ता जाने के भय से डाल देता है, पर इससे वीरक का मित्र शर्विलक दुःखी होता है और निम्न श्लोक पढ़ते हुए कहता है कि मेरी अवस्था इस समय निम्न है-
ज्ञातीन् विटान् स्वभुजविक्रमलब्धवर्णान्
राजापमानकुपितांष्च नरेन्द्रभृत्यान्।
उत्तेजयामि सुहृदः परिमोक्षणाय
यौगन्धरायण इवोदयनस्य राज्ञः।।4-26।।
अपि च- प्रियसुहृदमकारणे गृहीतं
रिपुभिरसाधुभिराहितात्मशङ्कैः।
सरभसमभिपत्य मोचयामि
स्थितमिव राहुमुखे शशाङ्कबिम्बम्।।4-27।।
अर्थात् जैसे राजा उदयन की रक्षा करने के लिए यौगन्धरायण ने प्रयास किया था, उसी प्रकार अपने मित्र की रक्षा के लिए मुझे प्रयत्नशील होना है। उसके उद्धार के लिए- धूर्तों, राजा के निरादर से क्रुद्ध उनके कुटुम्बियों, सचिवों एवं अपने बाहुबल के लिए विख्यात वीरों को उकसाता हू।।4/26।।
और भी- अपने मन की शंका से भयभीत होकर अकारण ही इस दुष्ट ने मेरे मित्र को जेल में डाल दिया है। राहु के मुँह में पड़े चन्द्रमण्डल की तरह अपने मित्र का मैं चलकर उद्धार करता हू ।।4/27।।
विदूषक और शर्विलक में चर्चा होती है और विदूषक परिस्थिति देखकर शर्विलक से कहता है-
भो वअस्स! संधी विअ दिस्सदि, चोरं विअ पेक्खामि। ता गेण्हदु भवं एदं सुवण्णभण्डअम्।                                                                      -3/18 का उत्तरार्ध
अर्थात् हे मित्र! सेंध-सी दिखाई दे रही है और चोर-सा दिख रहा है, अतः आप इस स्वर्णभाण्ड को रख। सेंध मारकर चोरी करने के लिए भारतीय दण्ड संहिता में धारा 446 के अनुसार 2 वर्ष की सजा का प्रावधान है।
वसन्तसेना- साहु मदणिए साहु। अभुजिस्सए विअ मन्तिदं।                                         -4/20 का उत्तरार्ध
अर्थात् साधु मदनिके साधु दासीत्व बंधन से मुक्त विवाहिता स्त्री की भाँति ही कहा। यहाँ स्त्री के बंधन मुक्त होने से उसके पूर्व में बंधन होने का अर्थात् उसके दासी होने का संकेत मिलता है, पर इसके साथ ही साथ यह संकेत भी मिलता है कि वह दासीत्व के बंधन से मुक्त भी हो सकती है। बंधन करने के लिए भारतीय दण्ड संहिता में धारा 342 के अनुसार 1 वर्ष की सजा का प्रावधान है।
अरे-रे दोवारिआ अप्पसत्ता सएसु सएसु गुम्मट्ठाणेसु होध। एसो अज्ज गोवालदारओ गुत्तिअं भंज्जिअ
गुत्तिवालअं वावादिअ बंधणं भेदिअ परिब्भट्टो अवक्कमदि। ता गेण्हध गेण्हध।
{अरे रे दौवारिकाः! अप्रमत्ताः स्वकेषु स्वकेषु भवत। एषाऽद्य गोपालदारको गुप्तिं भङ्क्त्वा,
गुप्तिपालकं व्यापाद्य, बंधनं भित्त्वा, परिभ्रष्टः अपक्रामति। तद्गृह्णीत गृह्णीत।} -6/1 का पूर्वार्ध
अर्थात् अरे ओ सिपाहियो, अपनी चैकियों पर सावधान हो जाओ। यह अहीर का छोकड़ा आर्यक, जेल का फाटक तोड़कर, दरबाजे पर खडे़ सन्तरी की हत्या कर, कैद से छूटकर भागा जा रहा है। पकड़ो, इसे पकड़ो। इससे स्पष्ट है कि उस काल में भी कैदी सन्तरी की हत्या कर कारागार से छूटकर भागते थे और हत्या जैसा जघन्य पाप पूर्व में भी प्रचलित था, जिसके लिए मृत्युदण्ड का ही विधान था। संकल्पपूर्वक हत्या करने के लिए भारतीय दण्ड संहिता में धारा 302 के अनुसार मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास की सजा का ही प्रावधान है।
राजसत्ता कई बार गलत लोगों को भी अपने निहित उद्देश्यों से कैद में डाल देती थी, आर्यक की घटना इस तरह की क्रिया का स्पष्ट उदाहरण है-
(प्रविष्य अपटीक्षेपेण सम्भ्रान्त एकचरणलग्ननिगडोऽवगुण्ठित आर्यकः परिभ्रमति।)
चेटः - (स्वगतम्) महन्ते णअलीए संभमे उप्पण्णं, ता तुलिदं तुलिदं गमिष्षं। (इति निष्क्रान्तः।)
(महान्नगर्यां सम्भ्रम उत्पन्नः, तत् त्वरितं त्वरितं गमिष्यामि।)
आर्यकः –
हित्वाऽहं नरपतिबन्धनापदेष-
व्यापत्ति-व्यसन-महार्णवं महान्तम्।
पादाग्र-स्थित-निगडैक-पाष-कर्षी
प्रभ्रष्टो गज इव बन्धनाद् भ्रमामि।। 6/1।।
अर्थात् (बिना पर्दा गिराये ही आर्यक का प्रवेश, एक पैर में लटकी बेड़ी तथा कपड़े से सारी देह ढककर घबड़ाया हुआ-सा घूम रहा है।)
चेट- (मन ही मन में) अरे, पूरे शहर में चारों ओर आतंक फैल गया है। अतः यहाँ से जल्दी से जल्दी भाग निकलूँ। (चला जाता है)
आर्यक- राजा की कैद के बहाने से होने वाले आपत्तिपूर्ण संकट के विशाल सागर को पारकर, बंधन को तोड़कर भागे हुए हाथी की तरह एक पैर में सिक्कड़ लटकाये इधर-उधर घूम रहा हूँ। इसीलिए तो आर्यक को कहना पड़ा-
भो ! अहं सिद्धादेष-जनित-परित्रासेन राज्ञा पालकेन घोषादानीय विषसने गूढागारे बंधनेन बद्धः। तस्माच्च प्रियसुहृच्छर्विलकप्रसादेन बंधनात् परिभ्रष्टोऽस्मि। (अश्रूणि विसृज्य)
अर्थात् हाय, किसी त्रिकालदर्शी  सिद्ध ने कह दिया- ‘‘आर्यक, राजा होगा। बस, इस भविष्यवाणी से डरकर राजा पालक ने मुझे घर से घसीटकर इस काल-कोठरी में जकड़ दिया। मेरे मित्र, शर्विलक ने मुझे उस कालकोठरी से आज मुक्त कराया है। (बहते हुए आँसू पोंछकर)
भाग्यानि मे यदि तदा मम कोऽपराधो।
यद्वन्यनाग इव संयमितोस्मि तेन।
दैवी च सिद्धिरपि लंघयितुं न षक्या।
गम्यो नृपो बलवता सह को विरोधः? ।।6/2।।
यदि मेरे भाग्य में ही लिखा है कि मैं राजा बनूँगा, तो इसमें मेरा भला क्या अपराध?.... फिरभी राजा पालक ने मुझे वनैले हाथी की तरह पकड़कर इस कारागार में क्या बन्द कर दिया?...भाग्य में जो लिखा है, वह तो होगा ही। फिर राजा तो सब के द्वारा सेवा किये जाने के योग्य है, भला बलवान् से विरोध कौन करना चाहेगा?
       आर्यक जेल से भागा हुआ है, उसे पकड़े जाने के आदेश हैं। वीरक और चंदनक राज्य पुलिस के अधिकारी हैं। आर्यक चारुदत्त की गाड़ी से बैठकर भाग रहा है, चारुदत्त की दिव्यता से, यश से चंदनक प्रभावित है और वह उस गाड़ी को वीरक के द्वारा देखने देना नहीं चाहता, इसी में दोनों में झगड़ा होता है-
अरे अहं तुए वीसत्थो राआण्णत्तिं करेन्तो सहसा केसेसु गेण्हिअ पादेण ताडिदो। ता सुणु रे! अहिअरणमज्झे जइ दे चउरंगं ण कप्पावेमि, तदा ण होमि वीरओ। {अरे! अहं त्वया विष्वस्तो राजाज्ञप्तिं कुर्वन् सहसा केषेषु गृहीत्वा पादेन ताडितः। तच्छृणु रे! अधिकरणमध्ये यदि ते चतुरङ्गं न कल्पयामि, तदा न भवामि वीरकः।
अर्थात् मुझ विश्वासी सैनिक को राजाज्ञा पालन करते समय का केश खींच कर लतियाया है, तो सुन लो, राजा के सामने या न्यायालय में तुम्हें चतुरंग दण्ड नहीं दिलवाया, तो मेरा नाम वीरक नहीं।
चन्दनकः -  अरे! राअउलं अहिअरणं वा वज्ज। किं तुए सुणअ-सरि-सेण?
{अरे! राजकुलमधिकरणं वा व्रज। किं त्वया षुनकसदृषेन?)
        - 6/23 के पहले का
चन्दनक-  अरे जा जा, राजा को फरियाद सुना या कचहरी जा। तुझ जैसे कुत्ते से हमारा कुछ नहीं बिगड़ता।
यहाँ दोनों पुलिसकर्मियों की अपनी अपनी दृष्टि से भूमिका अद्भुत है। वीरक राजाज्ञा के शब्दादेश के पालन में विश्वास रखता है, चंदनक पुलिसकर्मी रहते हुए भी उसकी प्राथमिकता में दैवीय मूल्यों की रक्षा सर्वापरि है, इसीलिए वह चारुदत्त से प्रभावित है और चारुदत्त इस प्रकार की किसी भी परिस्थिति में आर्यक की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है । ऐसी स्थिति में आर्यक की मन ही मन की गई निम्नोक्ति देखिए
नरपतिपुरुषाणां दर्षनाद्भीतभीतः
सनिगडचरणत्वात् सावशेषापसारः।
अविदितमधिरूढो यामि साधोस्तु याने
परभृत इव नीडे रक्षितो वायसीभिः।।7/3।।
आर्यक- (मन ही मन)  सिपाहियों को देखकर काफी डरे हुए, पैरों में बेड़ी पडे़ रहने के कारण भागने में बिल्कुल असमर्थ, सज्जन चारुदत्त की गाड़ी में छिपकर ठीक उसी तरह सुरक्षित मैं जा रहा हूँ,, जैसे कौए के घोंसले में मादा काक द्वारा अज्ञात भाव से पालित कोयल के बच्चे होते हैं।।3।।
चारुदत्तः - किं घोषादानीय योऽसौ राज्ञा पालकेन बद्धः?
आर्यकः - अथ किम्?
चारुदत्त- क्या आप ही आर्यक है, जिसे राजा पालक ने घर से निकाल कर जेल में बंद कर दिया था? आर्यक - और क्या?....
चारुदत्तः- विधिनैवोपनीतस्त्वं चक्षुर्विषयमागतः।
अपि प्राणानहं जह्यां न तु त्वां षरणागतम्।।7/6।।
चारुदत्त- हे आर्यक, तुम्हारे  भाग्य ने तुम्हें आँखों के सामने ला पटका है, मैं अपनी जान दे सकता हूँ, पर तुम्हारी रक्षा करूँगा।।6।।
आर्यक की बेड़ी काट दी गई है। .......और चारुदत्त इसप्रकार किसी भी परिस्थिति में आर्यक की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। इस पर आर्यक की उक्ति देखिए-
आर्यकः- स्नेहमयान्यन्यानि दृढ़तराणि दत्तानि।
आर्यक- तुम ने अपनी प्रेमरूपी दूसरी कठिन बेड़ी डाल दी है।........
चारुदत्त-  सखे! नावतरितव्यम्। प्रत्यग्रापनीतसंयमनस्य भवतोऽलघु-संवारा गतिः।
सुलभपुरुषसंचारेऽस्मिन् प्रदेषे प्रवहणं विष्वासमुत्पादयति, तत् प्रवहणेनैव गम्यताम्।
चारुदत्त- मित्र गाड़ी से मत उतरो। सिपाही घूम रहे हैं। तुम्हारे पैर से बेड़ी अभी ही कटी है।
तुम ठीक से अभी चल नहीं सकते। गाड़ी तुम्हारे लिए निरापद है। अतः इसी से जाओ।
चारुदत्तः- यत् उद्यते पालके महती रक्षा न वत्र्तते, तत् शीघ्रमपक्रामतु भवान्।
चारुदत्त - राजा पालक तुम्हें पकड़ने की हर सम्भव कोशिश कर रहा है।
अतः तुम्हारी रक्षा अभी भी खतरे में है। तुम यहाँ से जल्द भाग जाओ।
कृत्वैवं मनुजपतेर्महद्धयलीकं,
स्थातुं हि क्षणमपि न प्रषस्तमस्मिन्।
मैत्रेय! क्षिप निगडं पुराणकूपे
पष्येयुः क्षितिपतयो हि चारदृष्ट्या।। 7/8।।
चारुदत्त- इस तरह राजकीय अपराध करके इस बगीचे में अब एक क्षण भी रुकना उचित नहीं है।
मैत्रेय,इस बेड़ी को जल्द किसी पुराने कुएँ में۬ककर यहाँ से भागो, क्योंकि राजा दूत की आँखों या अनेक दृष्टियों से देखता है। 7/8
       नाटक की कहानी आगे बढ़़ती है। शकार विट और चेट से वसन्तसेना की हत्या करवाना चाहता है, पर दोनों इस जघन्य पाप को करने के लिए तैयार नहीं होते। यद्यपि शकार कहता है कि तुम्हें कोई हत्या करते देखेगा नहीं, और मैं तुम्हारे साथ हूँ, पर वह फिर भी तैयार नहीं होता है और इस पर विट कहता है-
पष्यन्ति मां दष दिषो वनदेवताष्च। चन्द्रष्च दीप्तिकिरणष्च दिवाकरोऽयम्।
धर्मानिलौ च गगनञ्च तथान्तरात्मा। भूमिस्तथा सुकृति-दुष्कृति-साक्षिभूताः। -8/24
अर्थात् पाप और पुण्य की साक्षी ये दिशाएँ देखेंगी, वनदेवता, चन्द्रमा, तीक्ष्ण किरण वाला ये दिवाकर, धर्म, वायु, आकाश और भूमि देखेगी और सबसे अधिक देखेगी मेरी अपनी अन्तरात्मा। ऐसे ही चेट भी कह देता है-
जेण म्हि गब्भदाषे विणिम्मिदे भाअधेअदोषेहिं। अहिअं च ण कीणिष्षं तेण अकज्जं पलिहलामि। -8/25
अर्थात् पूर्व जन्म में किये पापों के कारण ही मेरा जन्म दास कुल में हुआ, अब वसन्तसेना को मारकर और पाप बटोरना नहीं चाहूँगा, दुष्कर्म नहीं करूँगा।
       ......पर शकार व्यसन की आग में जल रहा है, अतः वह स्वयं ही वसन्तसेना की गला दबाकर हत्या कर देता है और कहता है-
इच्छंतं मम णेच्छति त्ति गणिआ लोषेण मे मालिदा, षुण्णे पुप्फकलण्डे त्ति षहषा पाषेण उत्ताषिदा।
शे वा वंचिद भादुके मम पिदा मादेव शा दोप्पदी, जे शे पेक्खदि णेदिषं ववषिदं पुत्ताह षूलत्तणं।।8/37।।
{ इच्छन्तं मां नेच्छतीति गणिका रोषेण मया मारिता शून्ये पुष्पकरण्डके इति सहसा पाशेनात्त्रसिता।
स वा वंचितो भ्राता मम पिता मातेव सा द्रौपदी याऽसौ पश्यति नेदृशं व्यवसितं पुत्रस्य शूरत्वम्।।}
अर्थात् मैं इसे दिल से चाहता हँू, पर यह वेश्या मुझे नहीं चाहती है, इसी क्रोध से मैंने इसे इस एकान्त में गला घोंटकर मार डाला। वह मेरे भाई और पिता अथवा द्रौपदी की तरह यह मेरी माँ अपने बेटे के वीरता-पूर्ण इस काम को आँख-भर देखने के लिए भी जिंदा नहीं रही, यही खेद है।।37।।
       थोड़ी देर में विट दृश्य पर आता है और शकार को कुछ व्याकुल रूप में देखता है और फिर शकार से पूछता है-
अत्याकुलं कथयसि। न शुध्यति मे अन्तरात्मा। तत् कथय सत्यम्।
तुम कुछ घबड़ाकर बोल रहे हो। तुम्हारी बातें सच्ची नहीं लगती। ठीक-ठीक बतलाओ; वह कहाँ गई?
इस पर शकार उत्तर देता है-
षवामि भावष्ष षीषं अत्तणकेलकेहिं पादेहिं ता, षण्ठावेहि हिअअं, एषा मए मालिदा।
{षपे भावस्य षीर्षमात्मीयाभ्यां पादाभ्याम् तत् संस्थापय हृदयम् एषा मया मारिता।}
मैं अपने पैरांे से तुम्हारा माथा छू कर कसम खाकर कहता हूँ, दिल थामकर सुनो, मैंने वसन्तसेना को मार डाला। गाड़ी से यहाँ लाकर पहले तो मैंने ही उसका बध किया।
       इस घटना से विट बहुत दुःखी होता है और निम्न रूप में विलाप सा करता है-
किं नु नाम भवेत् कार्यमिदं येन त्वया कृतम्।
अपापा पापकल्पेन नगरश्रीर्निपतिता।।8/39।।
(आँखों में आँसू भरकर)  कष्ट है, महाकष्ट -
वसन्तसेना को मारकर तुम्हारा कौन सा मनोरथ पूरा हुआ?...... इसलिए तुमने यह जघन्य अपराध किया? महान् पापी तुमने इस पाप-रहित नगर-लक्ष्मी को ही समाप्त कर दिया।।39।।
       इसके बाद विट वहाँ से जाना चाहता है, पर शकार उसे पकड़ लेता है और कहता है-
षकारः - अले! वषन्तषेणिअं षअं ज्जेव मालिअ मं दुषिअ कहिं पला-अषि? षम्पदं ईदिषे हग्गे अणाध पाविदे।
 { अरे! वसन्तसेनां स्वयमेव मारयित्वा माँ दूषयित्वा कुत्र फ्लायसे? साम्प्रतम् ईदृषोऽहमनाथः प्राप्तः।}
अरे, तुमने वसन्तसेना की हत्या कर दी और इस हत्या का कलंक मेरे माथे थोप कर स्वयं कहाँ भाग रहे हो? हाय, इस समय मैं ऐसे असहाय हो गया।
शकार और आगे कहता है- 
मम केलके पुप्फकलण्डक-जिण्णुज्जाणे वषन्तषेणिअं मालिअ केहिं पलाअसि? एहि, मम आवुत्तष्ष अग्गदो ववहालं  देहि। (इति धार-यति।) {मदीये पुष्पकरण्डकजीर्णोद्यााने वसन्तसेनां मारयित्वा कस्मिन् पलायसे। एहि, मम आवुत्तस्य अग्रतो व्यवहारं देहि।}
षकार- अरे ओ दुष्ट मेरे पुष्पकरण्डक नामक जीर्णोद्यान में वसन्तसेना को मारकर, अब कहाँ भागे जाते हो। आओ, मेरे भगिनीपति राजा पालक के सामने ही अब तुम्हारा विचार होगा। (पकड़ता है।)
        विट अपने को बचाने के लिए वहाँ से भाग जाता है और चेट को शकार बेड़ियों से बाँधकर अपने महल की अटारी में कहीं छिपा देता है और फिर एक बार और वसंतसेना की कि वह मर गई या नहीं? -की दृष्टि से पड़ताल कर आश्वस्त होकर कि वह मर गई, चारुदत्त को फँसाने के उद्देश्य से निम्न विचार के साथ आगे बढ़ता है-
भोदु, एव्वं दाव। सम्पदं अधिअलणं गच्छिअ ववहालं लिहावेमि। जहा अत्थष्ष कालणादो षत्थवाह-चालुदत्तकेण
मम केलकं पुप्फकलण्डकं जिण्णुज्जाणं पवेषिअ वषन्तसेणिआ वावादिदा त्ति।
भवतु, एवं तावत्, साम्प्रतमधिकरणं गत्वा व्यवहारं लेखयामि। यथा; अर्थस्य कारणात् सार्थवाहचारुदत्तेन
मदीयं पुष्पकरण्डकं जीर्णोद्यानं प्रवेश्य वसन्तसेना व्यापादितेति।
अर्थात् अब न्यायालय में जाकर रपट लिखवा दूँ कि धन के लोभ से सार्थवाहसुत चारुदत्त ने वसन्तसेना को मेरे पुराने बगीचे में लाकर मार दिया।
       इसके बाद शकार न्यायालय में पहुँचता है, वहाँ न्यायालय के कर्मचारी शोधनक ने वद सुनने के लिए न्यायालय साजसज्जा कर दी है, न्यायालय का दृश्य निम्न प्रकार प्रस्तुत है-
विशगण्ठि-गब्भपविट्ठेण विअ कीडएण अन्तलं मग्गमाणेण पाविदं मए महदन्तलं। ता कश्श एदं किविण-चेट्ठिअं पाडइश्शं? (स्मृत्वा) आं शुमलिदं मए- दलिद्द-चालुदत्तश्श एदं किविणचेट्ठिअं पाडइश्शं। अण्णं च, दलिद्दे क्खु शे । तश्श शव्वं शम्भावीअदि। भोदु, अधिअलणमंडवं गदुअ अग्गदो, ववहालं लिहावइश्शं। जधा चालुदत्तकेण वशन्तशेणीआ मोडिअ मालिदा। जाव अधिअलणमण्डवं ज्जेव गच्छामि। (परिक्रम्यावलोक्य च) एदं तं अधिअलणमण्डवं। एत्थ पविशामि। (प्रवश्यिावलोक्य च) कधं आशणाइं दिण्णाइं चिट्ठन्ति। जाव आअच्छन्ति अधिअलणभोइआ, दाव एदश्शिं दुव्वचत्तले मुहुत्तअं उवविशिअ पडिवालइश्शं। (तथास्थितः।) { अपि च। बिस-ग्रन्थि-गर्भ-प्रविष्टेनेव कीटकेनान्तरं मार्गमाणेन प्राप्तं मया, महदन्तरम्। तत् कस्येदं कृपणचेष्टितं पातयिष्यामि? आं स्मृतं मया, दरिद्रचारुत्तस्येदं कृपणचेष्टितं अन्यच्च, दरिद्रः खलु सः। तस्य सर्वं सम्भाव्यते। भवतु, अधिकरणमण्डपं गत्वा पातयिष्यामि। अग्रतो व्यवहारं लेखयिष्यामि। यथा चारुदत्तेन वसन्तसेना मोटयित्वा मारिता। तद्यथावदधिकरणमण्डपमेव गच्छामि। एतत्तदधिकरणमण्डपम्,अत्र प्रविशामि। कथमासनानि दत्तानि तिष्ठन्ति। यावदागच्छन्ति अधिकरणभोजकाः, तावदेतस्मिन् दूर्वाचत्वरे मुहूत्र्तमुपविश्य प्रतिपालयिष्यामि। }
अर्थात् कमलदण्ड के भीतर घुसे कीड़े की तरह अपनी राह खोजते हुए मैंने भयंकर अपराध कर डाला, तो फिर इस जघन्य अपराध को किस पर थोपूँ? (कुछ याद करके) हाँ, एक बात तो याद आयी, इस अपराध को निर्धन चारुदत्त पर तो थोपा जा सकता है। दूसरी बात यह भी कि वह है भी दरिद्र, अतः उसके लिए सब कुछ सम्भव माना जा सकता है। अच्छा तो कचहरी  जाकर सबसे पहले मैं अभियोग लिखवा दूँ कि चारुदत्त ने वसन्तसेना को गला घोंटकर मार डाला है, तो फिर कचहरी ही चलूँ। सामने तो न्यायालय है, तो चलूँ भीतर ही.... । कचहरी तो लग गई है, पर न्यायाधीश नहीं आये हैं, तो अच्छा हो इस आँगन की दूब पर बैठकर उनके आने की प्रतीक्षा करूँ।
षोधनकः- ( अन्यतः परिक्रम्य, पुरो दृष्ट्वा ) एदे अधिअरणिआ आअच्छंति। ता जाव उवसप्पामि ( इत्युपसर्पति।)
( दूसरी ओर घूमकर और आगे की ओर देखकर ) कचहरी के पदाधिकारीगण अब आ रहे हैं, तो अब उनके पास चलूँ।
अधिकरणिकः-      अहो! व्यवहारपराधीनतया दुष्करं खलु परचित्तग्रहणमधिकरणिकैः।
छन्नं कार्यमुपक्षिपन्ति पुरुषा न्यायेन दूरीकृतं
 स्वान् दोषान् कथयन्ति नाधिकरणे रागाभिभूताः स्वयम्।
तैः पक्षापरपक्षवर्द्धितबलैर्दोषैर्नृपः स्पृष्यते
संक्षेपादपवाद एव सुलभो द्रष्टर्गुणो दूरतः।।9/3।।
न्याय-पराधीन होने के कारण वादी-प्रतिवादी के मनोगत भावों को जान लेना हम न्यायाधीशों के लिए बड़ा ही कठिन काम है, क्यांेकि- वादी और प्रतिवादी-गण क्रोध या आसक्ति के कारण सच्ची बात छिपाकर या अपने दोषों को छिपाकर अभियोग उपस्थित करते हैं। पक्ष-विपक्ष के द्वारा परिवर्द्धित पाप ही न्यायाधीश तक पहुँच पाता है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि ऐसी परिस्थिति में न्यायाधीश के द्वारा घोषित न्याय की व उस न्यायाधीश बहुधा निंदा ही होती है, कीर्ति तो उससे बहुत दूर चली जाती है।।3।। यथा-
छन्नं दोषमुदाहरन्ति कुपिता न्यायेन दूरीकृताः
 स्वान् दोषान् कथयन्ति नाधिकरणे सन्तोऽपि नष्टा धु्रवम्।
ये पक्षापरपक्षदोषसहिताः पापानि संकुर्वते
 संक्षेपादपवाद एष सुलभो द्रष्टगुणो दूरतः।।9/4।।
क्रुद्ध वादी प्रतिवादी सच्ची बात छिपाकर असत्य अभियोग उपस्थित करते हैं। सज्जन लोग भी अपनी गलती कबूल नहीं करते हैं। अतः ऐसे लोग भी न्यायालय में भ्रष्ट हो जाते हैं। वादी या प्रतिवादी दोनों ही पक्षों से दूषित हो जाते हैं। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि विचारक पर दोषारोपण जितना सरल है, उसके गुणों को, वास्तविकता को प्रकट करना उतना ही कठिन।।4।।
शास्त्रज्ञःकपटानुसारकुषलो वक्ता न च कोधनः-
स्तुल्यो मित्र-पर-स्वकेषु चरितं दुष्ट्वैव दत्तोत्तरः।
क्लीबान् पालयिता षठान् व्यथयिता धर्मेऽतिलोभान्वितो
 द्वार्भावे परतत्त्वबद्धहृदयो राजष्च कोपापहः।।9/5।।
न्यायाधीश को शास्त्र-मर्मज्ञ होना चाहिए, वादी-प्रतिवादी के कपटपूर्ण व्यवहार को समझने में सुदक्ष होना चाहिए। वक्ता एवं क्रोधरहित होना चाहिए। मित्र, शत्रु एव पुत्रादि में समदृष्टि होना चाहिए। प्राप्त अभियोग पर विचार कर उचित निर्णय देना चाहिए। उन्हें दुर्बलों का संरक्षण एवं दुष्टों को दण्डित करना चाहिए। उन्हें धर्म में आस्था, लोभशून्यता, सन्दिग्ध वस्तु के तत्त्वान्वेषी तथा राजा के कोप पर दूर हटाने वाला होना चाहिए।।9/5।।
श्रेष्ठिकायस्थौ- अज्जस्स वि णाम गुणे दोसो त्ति वुच्चदि।
कायस्थ पेशकार- यदि आपके गुणों में भी दोष कहा जाय, तो चन्द्रमा की चाँदनी में भी अन्धकार कहा जायेगा।
अधिकरणिकः- भद्र! शोधनक! अधिकरणमण्डपस्य मार्गमादेशय।
न्यायाधीश- भद्र शोधनक, न्यायालय का मार्ग बतलाओ।
अधिकरणिकः- भद्र शोधनक! बहिर्निष्क्रम्य ज्ञायताम्- कः कः कार्यार्थी
षोधनकः- .........अज्जा! अधिअरणिआ भणन्ति- को को इध कज्जत्थी त्ति।
सज्जनो, न्यायाधीश कहते हैं- जिन्हें अभियोग उपस्थित करना है, वे हाजिर हों।
सबसे पहले राजा का साला ही मुद्दई बनकर हाजिर है। अच्छा, महोदय! आप एक क्षण रुकें। मैं न्यायाधीशों को सूचित कर दूँ।।27।। मृ.
अधिकरणिकः-  कथं प्रथममेव राष्ट्रिश्यालः कार्यार्थी। यथा- सूर्योदये उपरागो महापुरुषविनिपातमेव कथयति। शोधनक! व्याकुलेनाद्य व्यवहारेण भवितव्यम्। भद्र, निष्क्रम्य उच्चताम्-गच्छ, अद्य न दृश्यते तव व्यवहार इति।
क्या पहला वादी राजा का साला है? जैसे सूर्योदय के समय का ग्रहण किसी महान पुरुष की मृत्यु की सूचना है, आज न्याय परामर्श में व्याकुलता छा जायेगी। भले आदमी बाहर तो निकलो, जाकर कह दो- आज तुम्हारे मुकदमे पर विचार नहीं होगा।
षोधनकः- जं अज्जो आणवेदि। (निष्क्रम्य, शकारमुपगम्य) अज्ज! अधिअरणिआ भणन्ति- अज्ज गच्छ, ण दीशदि तव ववहार। {यथार्थ आज्ञापयति। अज्ज! अधिकरणिका भणन्ति- अद्य गच्छ, न दृष्यते तव व्यवहारः।}
न्यायाधीशों का कहना है कि आज आप के अभियोग पर विचार नहीं होगा।
षोधनकः-  अज्ज! रट्टिअशालअ! मुहुत्तअं चिट्ठ। दाव अधिअरणिआणं णिवेदेमि। (अधिकरणिकमुपगम्य) एसो रट्टिअशालो कुविदो भणादि। (इति तदुक्तं भणति।) {आर्य! राष्ट्रियश्याल! मुहूत्र्तकं तिष्ठ, तावदधिकारणिकानां निवेदयामि। एष राष्ट्रियशालः कुपितो भणति।}
अधिकरणिकः- सर्वमस्य मूर्खमस्य सम्भाव्यते। भद्र! उच्यताम्-आगच्छ, दृश्यते तव व्यवहारः।
मान्य महोदय, कुछ देर तो रुकिए, मैं जरा दण्डाधिकारी को आपकी बात तो सूचित कर दूँ। (न्यायाधीश के पास जाकर) राजा का साला नाराज होकर कहता है।
इस मूर्ख से सब कुछ संभव है। जाकर, उससे कहो, ‘आओ, तुम्हारे मुकद्मे पर विचार होगा
षकारः -  आ! अत्तणकेलका शे भूमी। ता जहिं में लोअदि तहिं उप-विशामि। (श्रेष्ठिनं प्रति) एश उवविशामि। (शोधनकं प्रति) णं एत्थ उव-विशामि। (अधिकरणिकमस्तके हस्तं दत्त्वा) एश उवविशामि। (इति भूमौ उपविशति।) {आः! आत्मीया एषा भूमिः, तद् यस्मिन् मे रोचते, तस्मिन्नुमप-विषामि। एष उपविषामि। नन्वत्र उपविषामि। एष उपविषामि।}
षकारः -  अरे, यह तो मेरी अपनी भूमि है। इसलिए मेरी जहाँ इच्छा होगी, वहाँ मैं बैठूँगा। (वणिक् के प्रति) यहाँ बैठूँगा, (शोधनक से) यहाँ मैं बैठँूगा, (न्यायाधीश के सिर पर हाथ रखकर) यहाँ मैं बैठता हूँ। (यह कहकर जमीन पर बैठ जाता है। )
मुकद्मे का कार्य आगे बढ़ता है। श्रेष्ठिकायस्थ मुकद्मे की परिस्थितियों के अनुसार अधिकरणिक से निर्देश चाहता है, अतः वह अधिकरणिक से एक प्रश्न करता है कि इस वाद का निर्णय किसकी अपेक्षा रखता है? - इस पर अधिकरणिक उत्तर देते हैं-
वाक्यानुसारेण अर्थानुसारेण च। यस्तावद्वाक्यानुसारेण स
खल्वर्थिप्रत्यर्थिभ्यः, यश्चार्थानुसारेण, स चाधिकरणिकबुद्धिनिष्पाद्यः।
अर्थात् वाक्य के अनुसार और अर्थ के अनुसार। इनमें जो वाक्य के अनुसार व्यवहार है, वह वादी-पतिवादी के बयान पर आधारित है और जो अर्थ के अनुसार व्यवहार है, उसमें सही तथ्य के अनुसार न्यायाधीश अपनी बुद्धि से निर्णय देता है। और आगे चलकर न्यायालय से वह वसन्तसेना की हत्या का अपराधी घोषित हो जाता है, राजा के आदेश से उसे मृत्युदण्ड दिया जा रहा है, इसी बीच एक भिक्षु वसन्तसेना की मूच्र्छा को उतार कर दण्ड-स्थल पर पहुँच जाता है और उसके प्राण बच जाते हैं। यह घटना पूरी न्याय-व्यवस्था पर सबाल उठाती है। यह तब भी होता था और आज भी होता है, क्योंकि ऐसी घटनाएँ आज भी प्रकाश में आती हैं। मृच्छकटिकम् के पूरे न्याय सम्बंधी उल्लेखों से कुछ बातें और उभरती हैं, जैसे- न्याय की प्रक्रिया लंबी नहीं है, त्वरित न्याय है, न्यायालय की भाषा में लोकभाषा और शास्त्रभाषा दोनों रूप हैं, उच्च एवं उच्चतम न्यायालय जैसी कोई अपीलीय व्यवस्था नहीं है, न्यायाधीश भी राजसत्ता से डरते थे व निर्णय लेने में स्वतं़त्र नहीं होते थे, न्यायव्यवस्था केवल अपराधी घोषित करती है, पर दण्ड राजा देता है, अधिवक्ताओं की कोई व्यवस्था नहीं है, न्याय-व्यवस्था में सहायता करने के लिए श्रेष्ठी और कायस्थ हुआ करते थे, वाद उपस्थित करने वाले को कार्यार्थी कहा जाता है। दण्ड व्यवस्था में राजा की इच्छा सर्वाेपरि होती थी। न्यायाधिकरण मनु की मान्यता के अनुसार था। वेश्या भी वैवाहिक जीवन जी सकती थी अर्थात् पेशा छोड़कर कुल-वधू बन सकती थीं। मालिक का कर्ज चुकाकर दासों को स्वतंत्र नागरिक बनाया जा सकता था। अँधेरा होते ही सड़कों पर वेश्या, विट, चेट आदि घूमने लगते थे। पुलिस पदाधिकारी छोटी छोटी बातों पर आपस में उलझ जाते थे व उन्हें अपने पद का बहुत घमण्ड होता था। किसी भी व्यक्ति पर षड्यंत्र का सन्देह होने पर उसे बेड़ियों से जकड़कर अनिश्चित काल के लिए कारागार में डाल दिया जा सकता था। शासनसत्ताएँ खूब पलटती थीं। हत्या के अपराध में गर्दन काट दी जाती थी, उसे शूली पर चढ़ाया जाता या कुत्तों से नुचवाया जाता था। प्राणदण्ड देने का काम चाण्डाल ही किया करते थे। खूनी व्यक्ति को शूली पर चढ़ाने से पूर्व रक्त चंदन और माला से सजाया जाता था। चाण्डाल बध्य-पटह बजाते हुए अपराधी को उसका परिचय देते हुए व अपराध एवं दण्ड की घोषणा करते हुए बध्यस्थल पर ले जाया जाता था। राजा के द्वारा न्यायाधीश को अपदस्थ कराया जा सकता था, आदि आदि।
-बी-1/23 सैक्टर जी जानकीपुरम्
लखनऊ-226021

9453323113